Monday 14 November 2011

बेवफ़ा हर बार मुझको यूं दग़ा देता रहा

बेवफ़ा हर बार मुझको यूं दग़ा देता रहा ।
 ग़ैर के ख़त पर मेरे घर का पता देता रहा॥

उसके लब पे गालियों के संग थे तो क्या हुआ,
मैं फ़क़ीराना तबीयत था दुआ देता रहा॥

रोग था ये प्यार का  मुमकिन ना था जिसका इलाज़,
क्या मरज़ था और वो किसकी दावा देता रहा॥

बाटने से बाद रही है इल्म की दौलत जनाब ,
सबको मैं देता रहा मुझको खुदा देता रहा॥

उसके ग़म मे पलकें भिगोना ठीक नहीं।

उसके ग़म मे पलकें भिगोना ठीक नहीं।
हरजाई के प्यार मे रोना ठीक नहीं॥
 अश्कों से क्यूँ गाल भिगोते रहते हो,
 फूलों को तेज़ाब से धोना ठीक नहीं॥
दुश्मन चाहे जितना ही ज़ालिम हो मगर,
कोई मुनाफ़िक़ दोस्त का होना ठीक नहीं॥
 उनपे जवानी आई उन्हे मालूम  नहीं,
 ऐसी उम्र मे खेल खिलौना ठीक नहीं॥
फूलों की बरसात जो हमपे करता है,
उसकी राह मे कांटे बोना ठीक नहीं॥
                             राकेश “सूफी”

Tuesday 1 November 2011

भलाई छोड़ कर आखिर बुराई पर उतर आए


भलाई छोड़ कर आखिर बुराई पर उतर आए॥
मोहब्बत करने वाले बेवफ़ाई पर उतर आए॥

भुला कर मेरे एहसां लबकुशाई पर उतर आए॥
ये बुज़दिल लोग भी अब तो लड़ाई पर उतर आए॥

रईसो मे गिने जाते थे देखो कल तलक जो लोग,
समय कुछ ऐसा बदला पाई पाई पर उतर आए॥

कहो अब ज़िंदगी भर दोस्ती कैसे निभाओगे,
ज़रा सी बात थी तुम तो लड़ाई पर उतर आए॥

नहीं अब वक़्त ज़्यादा है तुम्हें बर्बाद होने में,
अरे ये क्या किया तुम तो खुदाई पर उतर आए॥

बताओ “सूफी” साहब ऐसे घर का हाल क्या होगा,
जहां पर क़त्ल करने भाई का भाई उतर आए॥

                    राकेश “सूफी”

Monday 24 October 2011

आज पर्व दिवाली है।


आज पर्व दिवाली है
हर घर मे खुशहाली है?
                    
दीप जले हर एक जगह,
बस दिल कोना खाली है॥

यारों खाओ खूब मिठाई,
सब नक़ली सब जाली है॥

चाक़ जिगर फूलों का करके,
अब कितना खुश माली है॥

गाँव सभी वीरान पड़े,
शहरों मे हरियाली है॥

सस्ता है इंसान यहाँ,
मंहगा लोटा थाली है॥

       राकेश”सूफी”

Sunday 23 October 2011

साथ फूल के अक्सर तेज़ ख़ार होता है।


साथ फूल के अक्सर तेज़ ख़ार होता है।
हर हसीन दौलत पर पहरेदार होता है।
पीठ पर मेरी जिसका पहला वार होता है।
गैर वो नहीं अपना रिसतेदार होता है॥
दिल निकल के सीने से आँख मे धड़कता है।
जब किसी के आने का इंतज़ार होता है॥
वादा करके जब भी तुम वक़्त पर नहीं आते,
दिल से पूछिये कितना बेक़रार होता है॥
देखकर जिसे “सूफी” छुप के मैं निकलता हूँ,
सामना उसी का क्यूँ बार बार होता है॥
                       राकेश “सूफी”

ज़हर से भरपूर हैं ये तितलियाँ, बचकर रहो

ज़हर से भरपूर हैं ये तितलियाँ, बचकर रहो।
बेवफ़ा हैं दोस्तों ये लड़कियां बच कर रहो॥

इतना भी अच्छा नहीं है ये अकेलापन जनाब,
बनके नागन डस न लें तनहाइयाँ बचकर रहो॥

चंद लम्हों कि खुशी पे मौत को डावात न दो,
जान लेवा फैली हैं बीमारियाँ बचकर रहो॥

याद उसकी आ रही है फिर से शायद आपको,
खुल गईं है यादों कि वो खिड़कियाँ बचकर रहो॥

ख़त्म करिए दुनियावालों जल्दी से रस्म–ए-दहेज,
जल रही हैं देखो कितनी बेटियाँ बचकर रहो॥

बंद करिए लिखना “सूफी” इतनी सच्ची बात को,
काट लेता है ज़माना उँगलियाँ बचकर रहो॥

                       राकेश “सूफी”

वो मेरी आज थोड़ी सी बुराई करने वाला है

वो मेरी आज थोड़ी सी बुराई करने वाला है।
मेरा माशूक  मुझसे बेवफ़ाई करने वाला है॥
मेरे दिल के मदरसे में पढ़ाई करने वाला है,
वो काफ़िर आज काबे मे रसाई करने वाला है॥
हमें इन हिचकियों से इस तरह महसूस होता है,
तेरी यादों का लश्कर फिर चढ़ाई करने वाला है॥
न मैं युसुफ़ न औरंगज़ेब आलमगीर हूँ फिर भी,
दग़ा क्यूँ मुझसे आख़िर मेरा भाई करने वाला है॥
चलो ऐ दिल के बीमारों सुना है कोई चारागर,
मुहब्बत के मरीज़ो की दवाई करने वाला है।
ज़लालत, भीक का उसको निवाला पच नहीं सकता,
वो है मज़दूर मेहनत की कमाई करने वाला है॥
                 राकेश “सूफी”

मेरी अर्ज़े तमन्ना पे सितमगर कुछ नहीं कहता।

मेरी अर्ज़े तमन्ना पे सितमगर कुछ नहीं कहता।
गुज़र जाता है रास्ते से वो हँसकर कुछ नहीं कहता॥
हमारी ज़िंदगी का इस तरह बर्ताव है हमसे,
कि जैसे नाचनेवाली का शौहर कुछ नहीं कहता॥
किसी कि बेवफ़ाई ने उसे पत्थर बना डाला,
अब ये इल्ज़ाम भी उसपे  कि पत्थर कुछ नहीं कहता॥
बहक जाते हैं कैसे लोग बस दो चार क़तरों में,
यहाँ मैं पूरा मैख़ाना भी पीकर कुछ नहीं कहता,
बहादुर आदमी ही जंग का नक्शा बदलता है,
मियां तारीख शाहिद है कि कायर कुछ नहीं कहता॥
तू हरजाई है तू  है बेवफा, फिर भी मैं तेरा हूँ,
ये दुनिया कह रही है तेरा “दिलबर” कुछ नहीं कहता॥
                        राकेश  “सूफी”

Saturday 22 October 2011

रात भर फिर जगा रही है मुझे।

रात भर फिर जगा रही है मुझे।
याद उसकी सता रही है मुझे ॥


दिल के दरवाज़े पे देकर दस्तक,
कोई लड़की बुला रही है मुझे॥


ये ज़रूरत भी क्या अजब शै है,
गलियों गलियों फिरा रही है मुझे।


तुमसे थोड़ा सा अलग होते ही,
दुनिया आंखे दिखा रही है मुझे॥


कुछ सियासी जमात ने खाया,
कुछ ये महगाई खा रही है मुझे।


ज़िंदगी देखो आजकल "सूफ़ी",
मय के प्याले पिला रही है मुझे।


                   राकेश”सूफ़ी”

उसके ग़म मे पलकें भिगोना ठीक नहीं।

उसके ग़म मे पलकें भिगोना ठीक नहीं।
हरजाई के प्यार मे रोना ठीक नहीं॥
 अश्कों से क्यूँ गाल भिगोते रहते हो,
 फूलों को तेज़ाब से धोना ठीक नहीं॥
दुश्मन चाहे जितना ही ज़ालिम हो मगर,
कोई मुनाफ़िक़ दोस्त का होना ठीक नहीं॥
 उनपे जवानी आई उन्हे मालूम  नहीं,
 ऐसी उम्र मे खेल खिलौना ठीक नहीं॥
फूलों की बरसात जो हमपे करता है,
उसकी राह मे कांटे बोना ठीक नहीं॥
                             राकेश “सूफी”